अहंकार सीमाएं है
अहंकार के साथ एक बड़ी मज़ेदार बात है: वो अपने पर दावा करता है और अपने ही बारे में उसे बड़ा संदेह रहता है। वो अपनेआप पर दावा करता है और अपने ही बारे में संदेहजनक रहता है — ये दोनों बातें जुड़ी हुई हैं।
तो इसीलिए हम जब भी बोलते हैं कि, “मैं कुछ हूँ”, तो यह बात कभी पूरे विश्वास के साथ नहीं बोलते, थोड़ा संदेह बना ज़रूर रहता है। इसीलिए हम अपने आपको बहुत ऊँचा नहीं बोल पाते क्योंकि हमें अपने बारे में सदा कुछ न कुछ संदेह बना रहता है।
अहंकार का अपनी घोषणा करना हमेशा कुछ संदेह लेकर के आता है। आदमी के इतिहास में कितने लोग हुए हैं जिन्होंने अपनेआप को भगवान घोषित कर दिया? कितने हो पाए हैं? तुम अपनेआप को छोटी-मोटी चीज़ तो घोषित कर लेते हो — “मैं दानी, मैं पुण्य और भी बहुत कुछ”, पर जो भी करते हो, सीमित रहकर करते हो। बड़े से बड़ा अहंकारी यह नहीं बोलेगा कि, ‘मैं दुनिया का सबसे बड़ा दानी हूँ’ या ‘मैं इतिहास का सबसे बड़ा दानी हूँ’, और बोल भी देगा तो उसे शक पैदा हो जाएगा कि, ‘क्या पता? इतिहास में सब को तो मैं जानता नहीं। क्या पता, मैं हूँ कि नहीं!’
अहंकार जहाँ है, वहीं हीनता है, वहीं आत्म-शक है। स्वाग्रह ही आत्म-शक है।
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