अहंकार छोड़ने की हिम्मत कहाँ से पाएँ?

प्रश्नकर्ता: समस्या ये है कि आत्मा भी चाहिए और अहंकार छूटता नहीं।

आचार्य प्रशांत: ‘अहंकार’ को आत्मा चाहिए समस्या ये है। ‘अहंकार’ कहता है मुझे चाहिए। उसकी नियत में ख़राबी नहीं है उसे चाहिए पर वो कहता है कि ‘मुझे’ चाहिए। वो ये नहीं कहता मैं उसको मिल जाऊँ, वो कहता है वो मुझे मिल जाये।

नदी कहे “मैं सागर में मिल जाऊँ बात प्यारी है”, नदी को आकर्षण है सागर का। पर नदी कहती है मिलना तो है, प्यार है, खिंचाव है, कि हम मिलेंगे ऐसे कि सागर आये मेरे पास और मुझमें समा जाए। मैं बनी रहूँ ‘मैं’। ऐसा होगा नहीं! एक बात जान लो नदी और सागर मिलेंगे तो सागर ही बचेगा। नदी नहीं बचेगी। मिलन हो सकता है उसकी शर्त है छोटी-सी नदी को मिटना होगा, सागर नहीं मिटने वाला नदी के लिए। सागर सत्य है, नदी प्रवाह है।

प्र: आचार्य जी ये आरोपित होता है या सहज होता है।

आचार्य: ‘होता है’। मात्र होता है। है सत्य और जो होता है बस होता है। तुम उसका कारण ढूंढो, निकालो, लिखो चाहे न लिखो फ़र्क क्या पड़ता है? जो है सो है! तुम्हे ही सर झुकाना पड़ेगा उसके सामने, उससे लड़ नहीं पाओगे।

प्र: क्या मैं उस आनंद में डूब सकता हूँ? क्या आप मार्गदर्शन करेंगे?

आचार्य: डूब सकते हो, मार्गदर्शन भी हर तरफ़ से मिल रहा है। लेकिन डूबने के बाद ये इच्छा मत रखना कि डूबे हुए नीचे से बोलो कि “मिल रहा है आनंद”

(सभी श्रोता हँसते हुए)

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org