अहंकार कब ख़त्म होता है?

प्रश्नकर्ता: अहंकार कब ख़त्म होता है?

आचार्य प्रशांत: जब उसको अपने ख़त्म होने में कोई रुचि न रह जाए। आपका सवाल बताता है कि अभी उसके ख़त्म होने में रुचि है आपको। किसके ख़त्म होने में रूचि होती है? जिसके होने का एहसास होता है।

अहंकार उस दिन ख़त्म हुआ जानिए, जिस दिन ये प्रश्न ही मिथ्या हो जाए कि अहंकार से मुक्ति कैसे पाएँ या कि अहंकार के मुक्ति के मायने क्या हैं। जिस दिन तक आप मुक्ति की तलाश कर रहे हो, उस दिन तक पक्का है कि मुक्त हो नहीं आप। मुक्त वो जिसे अब मुक्ति से कोई प्रयोजन ही न रहा — “हमें मुक्त होना ही नहीं है, हम हैं बंधनों में, ठीक हैं, मस्त हैं।”

अब यह वक्तव्य ख़तरनाक है क्योंकि ये तमाम स्त्रियों का वक्तव्य है, पहले चरण से लेकर चौथे चरण तक — “हम जैसे हैं ठीक हैं, हमें क्यों कुछ बताते हो?”

पर ये बात ज़रा अलग है, इसकी सुगंध ज़रा अलग है, इसमें एक ख़रापन है। ये ऐसी मुक्ति है जो अब ‘मुक्ति’ शब्द को भी भूल गयी है। इसने कुछ ऐसा पाया है कि इसे अब खोने का और पाने का ख़याल भी नहीं है। कोई यहाँ ऐसा बैठा है जो बीच-बीच में अपनी साँस को पकड़कर देखता हो कि, “कहीं भाग न जाए?” जिसका आपको भरोसा होता है कि खोया नहीं जा सकता, आप उसकी जाँच-पड़ताल नहीं करते, आप उसको पाने की विधियाँ नहीं खोजते। यहाँ कोई ऐसा बैठा है जो बार-बार आँखों के पीछे जाकर के देखता हो कि कहीं रोशनी बुझ न जाए? आपको कोई अंदेशा नहीं कि साँस खो सकती है, कि आँखों के पीछे की रोशनी जा सकती है, इसीलिए आप उनके बारे में चिंतन ही नहीं करते। हाँ कोई मरीज़ हो जिसे साँस की बीमारी हो, कोई मरीज़ हो जिसे आँख की बीमारी हो, वो ज़रूर जाँचेगा, और उसको ज़रूर ख़याल आएँगे।

मुक्ति का अर्थ ही यही है कि इतनी आश्वस्ति है मुक्ति में, कि अब हम मुक्ति की बात ही नहीं करते।

और ये बातें चौथे चरण वाला कभी आसानी से स्वीकार करता नहीं है। अहंकार के निर्वाण की कोशिश अहंकार को बनाए रखती है क्योंकि कोशिश करने वाला तो अहंकार ही है।

आप मुक्ति का जितना प्रयास करेंगे, आप उतना ज़्यादा अमुक्त रहेंगे, क्योंकि प्रयास ही तो बंधन है।

आप चेष्टा कर रहे हैं बिना ये देखे कि चेष्टारत कौन है। आप कर्म कर रहे हैं बिना ये देखे कि कर्ता कौन है। आप दाएँ जाएँ कि बाएँ जाएँ, अपने पैरों से दूर थोड़े-ही चले जाएँगे। आपकी हालत वैसी ही है जैसे कोई अपने पैरों से मुक्ति पाने के लिए कभी बाएँ भागता हो और कभी दाएँ। आप जिधर को भी भागते हैं, अपने पैरों से ही भागते हैं। और जितना भागेंगे, उतना ज़्यादा आपके पाँव मज़बूत ही होते जाएँगे। भागने वालों को भागने की आदत लग जाती है, भागने वालों के पाँव फिर ऐसे हो जाते हैं कि भागे बिना रुकते नहीं।…

आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org

More from आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

Recommended from Medium

Lists

See more recommendations