अस्तित्व की सुंदर व्यवस्था
हमें बड़ी सुविधा रहती है ये कह देने में कि प्रकृति में, शरीर में, सूरज में, नदी में, इन सबमें तो व्यवस्था है लेकिन आदमी के जीवन को सुचारू चलाने के लिए आदमी को व्यवस्था बनानी पड़ेगी। ये बात बिल्कुल गलत है।
आत्मा के तल पर व्यवस्था है, प्रकृति के तल पर भी व्यवस्था है। बीच में बैठा है मन, जो कहता है कि व्यवस्था नहीं है, मुझे तो स्वयं ज़िम्मेदार होना पड़ेगा व्यवस्था लाने के लिए।
प्रेम आपके करे नहीं होता, सुनना भी आपके करे नहीं होता, बोध भी आपके करे नहीं होता, तो वहाँ पर भी एक व्यवस्था है, और वो व्यवस्था भी आपने नहीं बनाई है। न इस भौतिक अस्तित्व को चलाने वाली व्यवस्था आपने बनाई है, न हृदय को चलाने वाली, न मुक्ति को चलाने वाली, न सत्य को चलाने वाली, वो व्यवस्था भी आपने नहीं बनाई है। लेकिन फिर भी आपको ये भरोसा है कि जीवन को चलाने वाली व्यवस्था आपको ही बनानी पड़ेगी।
आप कहते हो, देखो, जो भी कोई है परमात्मा वगैराह, वो चाँद- तारों को चलाना तो जानता है, वो मेरे दिल को तो धड़काना भी जानता है, वो ये भी जानता है कि प्रेम क्या है और करुणा क्या है और वात्सल्य क्या है। लेकिन परमात्मा ये नहीं जानता कि घर कैसे बनाना है तो वहाँ फिर मुझे अपनी व्यवस्था लगानी पड़ेगी। ये आपके मन की चतुराई है।
हमें जब अराजकता की बात करनी होती है तो हम कहते हैं यहाँ तो देखिये साहब जंगल राज चल रहा है। तुम्हें पता भी है कि जंगल कितना सुव्यवस्थित होता है? जंगल राज, राम राज के समतुल्य ही है। दोनों एक होते हैं। पर ये हमारा अहंकार है कि हम कहते हैं प्रकृति ने, परमात्मा ने, जो व्यवस्था दी है वो बड़ी हीन है, हम चलायेंगे व्यवस्था।
जो अनंत सूर्यों को चला सकता है, पृथ्वियों को, ग्रहों को, आकाशगंगाओं को संचालित कर सकता है और जिसके करे आपका मन किसी अपरिचित सौन्दर्य को देख कर धड़क जाता है, उस केंद्र पर, उस आदिशक्ति पर थोडा तो भरोसा करिए।
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