असली रण अपने विरुद्ध है

विश्राम, शांति मात्र शब्द नहीं हैं, कल्पनाएं नहीं हैं। विश्राम और शांति सिर्फ़ बात करने के लिए नहीं हैं, उन तक पहुँचना होता है, उनकी चर्चा नहीं करनी होती, और उन तक पहुँचने के मार्ग में हज़ारों बाधाएँ हैं, जिन में केंद्रीय बाधा तुम स्वयं हो।

रण का अर्थ ही है — अपने विरुद्ध खड़े हो जाना।

कबिरा रण में आइ के, पीछे रहे न सूर।

तुम जैसे हो, ऐसा होते हुए तुम्हें विश्राम मिल जायेगा क्या? शांति मिल जाएगी क्या? तुम कह रहे हो जूझने की ज़रूरत क्या है, मत जूझो! नहीं जूझते तो तुम्हारे पास अभी है क्या बेचैनी, उन्माद और विक्षिप्तता के अलावा? मत जूझो! कह तो ऐसे रहे हो, जैसे कि जूझने के कारण शांति भंग हो रही हो।

कह तो ऐसे रहे हो जैसे संग्राम के कारण तुम्हारे विश्राम में ख़लल पड़ता हो। विश्राम जाना है कभी? शांति जानी है कभी? प्रश्न ही काल्पनिक है कि ‘जब खेल शांत होने का है तो कोई जूझे क्यों?’ क्योंकि जूझ तो रहे ही हो, क्योंकि संग्राम में तो हो ही, पर उल्टा लड़ रहे हो। पता भी नहीं है तुम्हें कि किसके विरुद्ध लड़ना है, ऐसे नशे में हो कि पहचान ही नहीं है कि दुश्मन कौन है और दोस्त कौन है, संग्राम में तो हो ही।

संग्राम का अर्थ समझते हो? संग्राम का अर्थ है, ‘खतरा है और अपनी रक्षा करनी है’, क्या लगातार इसी भाव में नहीं जी रहे हो? तो लड़ाई तो चल ही रही है। कोई जीव ऐसा नहीं है जो लड़ न रहा हो, कबीर का सूरमा वो है, जिसने सच्ची लड़ाई लड़ना सीख लिया है, अंतर समझना, यहाँ कोई नहीं है जिसने हथियार डाल दिये हों, यहाँ कोई नहीं है जो अहिंसक हो, यहाँ…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org