असफलता मिले तो न घबराना, न लजाना!
प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी। मैं आपको काफ़ी समय से सुन रहा हूँ, और आपको सुनने के बाद आपसे खुश नहीं हूँ। जब से मैंने आपको सुनना शुरू किया है, तब से मेरा पूरा जीवन अस्त-व्यस्त हो गया है। (दर्शकों की हँसी और तालियाँ)
मैं पहले जैसा जीवन जीता था और आपको सुनने के बाद मुझे जो कुछ सीखने को मिला है, मैं हमेशा उन दोनों के बीच में एकदम ऑसिलेट् -सा (डोलता) करता रहता हूँ। कई बार तो ऐसा हुआ है कि मुझे पता है कि ये ग़लत है, ये नहीं करना चाहिए, फिर भी मैं उनको करता हूँ।
आचार्य जी, मुझे कई-कई बार ऐसा लगता है कि कहीं मैं आपको फ़ेल (असफल) तो नहीं कर रहा? कहीं मैं आपके प्रति अनादर-असम्मान तो नहीं कर रहा? आपसे शान्ति मिलने की जगह मेरा मन इतना विरोध क्यों करता है आपका?
आचार्य प्रशांत: देखो, ये जो भी कुछ आप बता रहे हो, ये तो बड़ी बढ़िया बात है। ज़्यादा चिन्ता मुझे उनको देखकर होती है जो कहते हैं कि जबसे आपको सुना है, मौज ही मौज है। मैं कहता हूँ ख़ुद को सुनकर मुझे आज तक मौज नहीं आयी, तुम्हें कैसे आ गयी? (तालियाँ)
यहाँ तो जो सारा काम है, वही सड़ी-गली इमारतों को गिराने का और मलबा साफ़ करने का है। उसमें विध्वंस तो होगा ही न? चोट तो लगेगी न? और चोट नहीं सह सकते तो जवान काहे के लिए हो?
बार-बार मैं बोला करता हूँ कि मुझे युवाओं से बात करनी है। और कुछ अगर बुज़ुर्ग, बूढ़े लोग भी आ जाते हैं, मैं उनसे कहता हूँ कि दिल से तो जवान हो न, तभी मुझे सुनना, क्योंकि जो हम काम करने जा रहे हैं वो कमज़ोरों के लिए नहीं है।