असंबद्धता स्वभाव है तुम्हारा

जिस दुनिया में हम रहते हैं, इसकी तो प्रकृति ही यह है कि ये किसी की सगी नहीं है। ‘संबद्धता’ जैसी कोई चीज़ हो ही नहीं सकती इस दुनिया में।

आज मैं जिस दफ़्तर में गया था, वहाँ मैंने सैकड़ों लोग देखे, बड़ा दफ़्तर था। वहाँ एक भी ऐसा नहीं था, जो वहाँ बिलौन्ग करता हो, वहाँ से संबद्ध हो। लोग अपने साधे-सधाये रस्ते से चल रहे थे, आ रहे थे, जा रहे थे। किसी का किसी और चीज़ से मतलब ही नहीं था।

ये तो प्रकृति ही है, कि कोई बिलौन्ग करता ही नहीं यहाँ किसी को। बिलौन्ग करने का अर्थ ही यही है, नज़दीकी या निकटता। वो तो है ही नहीं कहीं। यह बताओ कि बिलौन्ग करने का भ्रम कहाँ से आ जाता है? यह तो तय ही है कि कोई किसी को बिलौन्ग नहीं करता, पर ये भ्रम कहाँ से आ जाता है? कौन किसको बिलौन्ग करता है?

बिलौन्गिन्ग्नेस, संबद्धता, तो बड़ी असली बात होती है। तुम्हें ये लगता भी कैसे था, कभी भी, कि तुम्हारा उनसे कोई रिश्ता भी है? कोई मुझसे, एक दिन आकर कहता है कि, “पहले जिनके साथ रहते थे, उनके साथ अब रहना नकली-सा लगता है”। तो मैंने कहा, “नकली तो था ही हमेशा से, तुम मुझे समझाओ कि तुम्हें असली कैसे लग गया था?”

हमारे रिश्ते आज नकली नहीं हुए हैं, वो तो हमेशा से नकली थे। उनकी प्रकृति ही है — नकलीपन। तुम्हें असली कैसे लग गए? तुम ये बताओ। और वही महत्त्वपूर्ण सवाल है, क्योंकि वही बीमारी है। उसको जानना ज़रूरी है कि- वो बीमारी क्या है, और कैसे लग जाती है? इस पर विचार करना कि — धोखा कैसे हो गया था?

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org