अर्जुन को ही क्यों मिली गीता?

अर्जुन को ही क्यों मिली गीता?

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, कल आपने वो समझाया था कि तीन प्रकार के मुनष्य हैं कि एक को तो धर्म से कोई मतलब ही नहीं है, वो बस ऐसे ही जी रहा है। और दूसरा है जो उनसे बेहतर है, पर वो राजसिक है तो वो उनपर भारी पड़ता है। और तीसरे हैं जिन्हें धर्म से भी मतलब है और बिलकुल तीव्रता के साथ अपना संकल्प भी करते हैं, कर्म में भी उतरते हैं। तो अपने-आपको परखना हो तो कैसे स्पष्टता से मैं देख सकता हूँ क्योंकि आपसे जुड़ने से पहले…

आचार्य प्रशांत: मेरे ही मुँह से कहलवाओगे? (हँसते हुए) ख़ुद ही देख लीजिए न, आत्मज्ञान का क्या अर्थ होता है? अपने जीवन का अवलोकन करो, ख़ुद ही पता चल जाएगा कि किस तल पर हो। मैं क्या बोलूँ?

प्र: अभी तो जैसे आपसे जुड़कर तो हम आगे बढ़ पा रहे हैं। लेकिन आप नहीं होते तो हमें लगता ठीक है, शान्ति मिल गई काम चलाओ।

आचार्य: नहीं, ये सब ऐसे नहीं है कि हमें क्या लगता। देखो, किसी भी व्यक्ति पर न तो पूरा आश्रय रखना चाहिए, न उसपर बड़ी ज़िम्मेदारी डाल देनी चाहिए। मैंने ही नहीं करा तो आपको क्यों बोलूँ कि आप करो? अंततः अध्यात्म का भी उद्देश्य यही है कि इस लायक हो जाओ कि दूसरों को सहारा दे सको।

तो भारत में जो पारंपरिक मॉडल (प्रारूप) रहा है गुरु शिष्य परंपरा का, वो कुछ अर्थों में बहुत उत्कृष्ट है और कुछ अर्थों में घातक हो जाता है, खासतौर पर जब उसका दुरुपयोग करा जाए। जैसे यही बात कि आपने समझा दिया तो हम समझ गए, नहीं तो नहीं समझ पाते; ऐसे नहीं बोलना चाहिए। मैं कोई नहीं हूँ।

प्र: नहीं, मैं एक्चुअली ये कहना चाह रहा था कि आपने कहा था कर्म में तीव्रता से उतरने की बात। तो संस्था के माध्यम से तो हम जुड़ पाए हैं और थोड़ा कर्म में उतरने की प्रेरणा मिलती है। वैसे तो रहता कि ठीक है, अब शांति मिल गई, अब अपना जीवन देख लो, बाकी लोग देख लेंगे सब। मतलब स्वार्थ-सा आ जाता है उसमें।

आचार्य: देखो ये बात ठीक भी हो तो भी नहीं कहनी चाहिए। सबसे बड़ी चीज़ होती है बल। एक मामले में बल सत्य से भी बड़ा होता है, क्योंकि बल नहीं है तो सत्य तक भी कैसे पहुँचोगे? कुछ ऐसा मत बोलो जो तुम्हारा बल क्षीण करता हो। ये भी कहना कि ‘आप नहीं होते तो हम कैसे पहुँचते या संस्था नहीं होती तो…’, ये बात भी बल को क्षीण कर देगी, मत बोलो। अनुग्रह अगर है तो मन में उसको चुपचाप मौन रखो।

पर ऐसे बोल करके जानते हो क्या कर रहे हो? भीतरी माया साज़िश कर रही है, वो आगे बढ़ने की ज़िम्मेदारी से तुमको रिहाई दे रही है। वो कह रही है, ‘अभी भी आगे अगर बढ़े हैं तो उनकी बदौलत बढ़े हैं।‘ दूसरे की बदौलत कोई बहुत आगे नहीं बढ़ सकता।

आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org

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