अभी और कितना सहारा चाहिए तुम्हें?

प्रश्नकर्ता: सर, मन की आदत है कि वो या तो आकर्षण पर चला है या विकर्षण पर। जब उसे ये समझ में आता है रिश्तों में या किसी और जगह पर कि नकली है तो वो कुछ असली तलाशता है।पर असली की तलाश में भी कुछ चाहता है पाना। तो वो या असली कैसे मिले? कैसे समझाएं इस मन को?

आचार्य प्रशांत: और यदि बात ये हो कि जिस सहारे की आप माँग कर रही हैं, वो सहारा मिला ही हुआ हो। जैसे कोई छोटा बच्चा हो जो साइकिल चलाना सीख रहा हो और आती नहीं उसे साइकिल चलानी, साइकिल पर चढ़ा हुआ है और डर लग रहा है उसे खूब। पिता से बार-बार माँग कर रहा है कि “मैं गिर जाऊँगा, मैं गिर जाऊँगा, मैं गिर जाऊँगा, पीछे से पकड़े रहो साइकिल को। मैं चला रहा हूँ धीरे-धीरे, तुम पकड़े रहो।” और पिता का जवाब नहीं आ रहा है, पिता का जवाब नहीं आ रहा। पिता का जवाब नहीं आ रहा है, तो बच्चे को लग रहा है कि कोई सहारा नहीं है, तो वो पिता के प्रति द्वेष और शंका से भर गया है कि “सहारा तो देता नहीं।”

डरा इतना हुआ है कि पीछे मुड़ के देख भी नहीं पा रहा है कि सहारा है या नहीं है। तथ्य क्या है? तथ्य ये है कि सहारा है, इसीलिए अभी तक गिरा नहीं है। गिरा नहीं है, यही तो पिता का जवाब है। वो पिता शब्दों में बोलता नहीं। ये कह रहा है, “सहारा दो” वो कह रहा है “देखो तुम अभी तक गिरे ही नहीं।” यदि ज़रा भी विवेक हो तो समझ जाओगे कि सहारा नहीं होता, तो तुम कहाँ से होते? तुम कब के धूल बन गए होते और सहारा पूरा है, और बच्चा चिल्ला रहा है “सहारा नहीं मिलता है, क्या करें? थोड़ा सहारा मिल जाता, तो हम कुछ कर लेते, कि ये कर लेते, कि वो कर लेते।”

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org