अब लगन लगी की करिये
अब लगन लगी की करिये
अब लगन लगी किह करिए? ना जी सकीए ते ना मरीए।
तुम सुनो हमारी बैना, मोहे रात दिने नहीं चैना, हुन पी बिन पलक ना सरीए। अब लगन लगी किह करीए?
इह अगन बिरहों दी जारी, कोई हमरी प्रीत निवारी, बिन दरशन कैसे तरीए? अब लगन लगी किह करीए?
बुल्ल्हे पई मुसीबत भारी, कोई करो हमारी कारी, इक अजेहे दुक्ख कैसे जरीए? अब लगन लगी किह करीए?
~बुल्ले शाह
आचार्य प्रशांत: तीन जगह होती हैं, जहाँ से हमारे कर्म निकल सकते हैं।
मन की तीन अवस्थाएँ हैं। मन केंद्र पर नहीं है, और उसे ये एहसास भी नहीं है कि वो केंद्र पर नहीं है। और वो कर्म करे जा रहा है। मन स्रोत से जुदा है और उसे स्रोत से जुदा होने का कोई ज्ञान भी नहीं है। उसकी नींद, मूर्छा इतनी गहरी है, इस स्थिति में वो जो भी करता है वो पागलपन है। इसको कहेंगे मन की विक्षिप्त अवस्था।
मन की दूसरी अवस्था वो है, जिसमें मन केंद्र से हटा तो है, पर इतना जग गया है कि जान गया है कि बेचैनी इसी कारण है क्योंकि अलग हूँ, दूर हूँ, जुदा हूँ — ये विरह है। विरह में, और विक्षिप्तता में साम्य यह है, कि दोनों में ही दूरी है। और विरह में और विक्षिप्तता में अंतर यह है, कि विक्षिप्त मन जानता भी नहीं कि दूरी है, और विरही मन जानता है कि दूरी है। इसी कारण कष्ट है।
विक्षिप्तता और विरह के अलावा, एक तीसरी भी होती है स्थिति मन की, जहाँ से मन के कर्म निकलते हैं। वो होती है, विभुता — पा लिया। अब इस पाने के…