‘अप्प दीपो भव’ से क्या आशय है?
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, सत्य को पाने के लिए एक तरफ तो गुरु की अपरिहार्यता बताई जाती है, मतलब उसके बिना संभव ही नहीं है। एक तरफ तो ये बात की जाती है दूसरी तरफ महात्मा बुद्ध कहते हैं कि ‘अप्प दीपो भव’ अपने दीपक स्वयं बनो!
आचार्य प्रशांत: तो ये बात तुम महात्मा बुद्ध से क्यों सुन रहे हो? गुरु की तो जरूरत ही नहीं है। जब गुरु की ज़रूरत ही नहीं है तो महात्मा बुद्ध की बात क्यों सुन रहे हो? तुमने उन्हें भी क्या बना लिया?
प्रश्नकर्ता: गुरु।
आचार्य प्रशांत: उनको गुरु बनाकर मुझसे कह रहे हो कि गुरु की जरूरत है क्या? तुम तो गुरु उन्हें पहले ही बना चुके हो अब क्या पूछ रहे हो कि गुरु चाहिए कि नहीं चाहिए? या ऐसा है कि बुद्ध कह गये हैं- “बस मेरी सुनो और किसी और की मत सुनो। मैं तुमको बताए देता हूँ ‘अप्प दीपो भव’ अब इसके बाद किसी और की मत सुनना।” जब किसी की नहीं सुननी तो फिर उनकी भी नहीं सुनेंगे लेकिन सुननी तो बेटा पड़ेगी किसी न किसी की। क्यों? क्योंकि अपनी सुन के तो बहुत दुःख पा रहे हो। अपनी सुनकर बहुत दुःख पाया तुमने, तो सुननी तो पड़ेगी। अपनी हालत देखो न, किसी की मत सुनो। ये सुनने के लिए भी तुम्हें कोई और चाहिए। ‘कोई गुरु आवश्यक नहीं है’ ये जानने के लिए भी तुम्हें कोई गुरु चाहिए। अब बताओ गुरु चाहिए कि नहीं चाहिए?
प्रश्नकर्ता: दोनों स्थितियों में से एक।
आचार्य प्रशांत: तो बात खत्म हो गई। हाँ, इससे एक बात पता चलती है कि असली गुरु वो है जो धीरे-धीरे तुम्हें गुरु की आवश्यकता से मुक्त कर दे, जो गुरुता तुम्हारे ही…