अपने ही प्रति हिंसा है माँसाहार
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माँस खाना कैसा भी नहीं है — न अच्छा है, न बुरा है — खा सकते हो, कुछ भी खा सकते हो। बहुत-बहुत पुराने जो मनुष्य के पुरखें थे, वो माँसाहारी ही थे। आज भी तुम्हारे दाँतों की बनावट ऐसी है कि वो माँस को चीर सकती है, वो उन्हीं पुरखों से आ रही है। आज भी तुम्हारे पेट की, आँतों की, और आन्तरिक रसों की बनावट कुछ ऐसी है कि वो माँस को पचा सकती है। वो भी उन्हीं पुरखों से ही आ रही है। हम सब वंशज माँसाहारियों के ही हैं।
बात माँस खाने की नहीं है। बात है उस मन की जो क़त्ल करता है।
माँस यूँ ही तो तुम्हारी थाली पर या तुम्हारे पेट में नहीं आ जाता न? माँस आने से पहले क़त्ल होता है, हिंसा होती है। बात हिंसा की है।
हिंसा में भी मूल बात ये नहीं है कि तुमने किसी दूसरे को मारा; मूल बात ये है कि तुम्हारा मन ऐसा हुआ कि तुम मार दो।
वास्तव में तुम किसी दूसरे को क्या मारोगे, जीवन-मृत्यु तो लगातार चलने वाला एक क्षद्म खेल है। तुम क्या मारोगे किसी को? कौन किसी को मार सकता है? तो बात यहाँ पर ये भी नहीं है कि तुम दूसरे का ख्याल रख रहे हो; बात यहाँ पर ये है कि मन ऐसा हिंसक है जो मारने में यकीन रखता है। और जो मन मारने में यकीन रखता है, वो दूसरे के प्रति ही नहीं, सर्वप्रथम अपने प्रति हिंसक होता है। वो दूसरे को तो क्या ही नुकसान पहुँचाएगा, सर्वप्रथम अपनेआप को नुकसान पहुँचाता है।
मेरी आपत्ति माँसाहार के प्रति नहीं है; मेरी आपत्ति हत्या के प्रति है। और हत्या में भी मेरी आपत्ति मन की अंदरुनी ‘हिंसा’ के प्रति है। वो हिंसा किसी के क़त्ल के रूप में भी अभिव्यक्त हो सकती है — रुपया-पैसा, प्रतिष्ठा इकठ्ठा करने के लालच के रूप में भी अभिव्यक्त हो सकती है, धर्म और राष्ट्रीयता के नाम पर लड़ाइयाँ लड़ने के रूप में भी अभिव्यक्त हो सकती है, डर के कारण अपनी सुरक्षा के तमाम आयोजन करने के रूप में भी अभिव्यक्त हो सकती है — और ये सब एक हैं।
हो सकता है कि तुम माँस न खाते हो, हो सकता है कि तुम विशुद्ध शाकाहारी हो और तुम लगे हुए हो तिजोरी भरने में, तुम लगे हुए हो अपनी सुरक्षा के इंतज़ाम करने में। तुम्हारे मन में तमाम तरह की धारणाओं ने अड्डा जमा रखा है। ये उतनी ही गहरी हिंसा है। और ये सारी बातें जुड़ी हुई हैं, ये एक साथ आती हैं और एक साथ जाती हैं।
तुम दूसरों का ख्याल मत करो, तुम ये देखो कि ये हिंसा तुम्हारे साथ क्या कर देगी। तुम ये मत सोचो कि तुमने बिचारे किसी पशु की जान ले ली। पशु की जान कौन ले सकता है? ज़रा समझोगे तो जानोगे कि पशु था ही नहीं जान लेने के लिए। तो बात यहाँ पर भावुक हो जाने की नहीं है कि — “अरे, अरे, अरे बिचारा मुर्गा मारा गया”। यहाँ पर बात भावुक हो जाने की बिलकुल नहीं है। सच तो…