अपने विरुद्ध निरंतर युद्ध ही यज्ञ है!

अपने विरुद्ध निरंतर युद्ध ही यज्ञ है!

कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्। तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् ।।१५।।

कर्मों का उद्भव ब्रह्म से है। ब्रह्म अक्षर से उद्भूत है। इसलिए ब्रह्म सदा, नित्य ही यज्ञ में प्रतिष्ठित है।

~ श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ३, कर्मयोग, श्लोक १५

आचार्य प्रशांत: “कर्मों का उद्भव ब्रह्म से है।” जैसे ही कर्म लिखा है, हमने उसको तुरंत क्या पढ़ना है? निष्कामकर्म। ठीक है? कह रहे हैं कर्म का उद्भव ब्रह्म से है। अब यहाँ पहले थम जाओ, जल्दी से आगे नहीं भागना है। ब्रह्म से कर्म का उद्भव है। ब्रह्म के दो अर्थ होते हैं; एक तो जो निर्गुण-निराकार, वो पारब्रह्म, और एक वो ब्रह्म जिसकी आप कभी बात कर सकते हो, उसको बोलते हैं शब्दब्रह्म।

जो पारब्रह्म है, जो विचारों के अतीत है, उसका उल्लेख शास्त्र में नहीं होता। क्योंकि वो उल्लेख के अतीत है, अपनी परिभाषा से ही, तो उसकी कैसे बात करेंगे? तो ब्रह्म शब्द जब भी मिलेगा शास्त्र में तो समझ लेना शब्दब्रह्म की बात हो रही है। शब्दब्रह्म वो जिसको आप लक्ष्य कर सकते हो; मन के लिए जो उपयोगी है। जैसे ‘मुक्ति’ शब्द। मुक्ति क्या है आप जानते नहीं न, जानने के लिए तो जीना पड़ेगा। कोई भी मुक्त है यहाँ पर? लेकिन मुक्ति शब्द फिर भी बहुत उपयोगी है न। क्योंकि वो आपको बताता है कि आपके बन्धनों के अतिरिक्त भी, बन्धनों के आगे भी कुछ हो सकता है।

अब ‘मुक्ति’ शब्द वास्तव में मुक्ति नहीं है, वो शब्द-मुक्ति है। वो मुक्ति ‘शब्द’ है लेकिन बहुत उपयोगी है। जो वास्तविक मुक्ति…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org