अपनी हैसियत जितनी ही चुनौती मिलती है सबको
प्रश्न: आचार्य जी, प्रणाम। कई सालों से साधना कर रहा हूँ, कुछ समय से आपको सुन रहा हूँ, जीवन में स्पष्टता बहुत हद तक आई है। अब जैसे-जैसे आगे बढ़ता जा रहा हूँ, मेरी बीमारियों का पता चल रहा है। जैसे साधना में आगे बढ़ रहा हूँ, माया का हमला उतना ही ज़ोर से हो रहा है। साधना में और आगे बढ़ने के लिए मुझे क्या सावधानियाँ रखनी ज़रूरी हैं कि मैं साधना में आगे लगातार बढ़ सकूँ? कृपया बताएँ।
आचार्य प्रशांत: एक ही सावधानी है — आगे बढ़ते रहो, रुक मत जाना।
और माया का हमला कोई ज़ोर-वोर से नहीं हो रहा है तुम पर। ‘ज़ोर’ का अनुभव होना बड़ी व्यक्तिगत चीज़ होती है, व्यक्ति-सापेक्ष होती है। एक छोटा-सा बच्चा हो, उसको ज़रा-सा धक्का दे दो तो वो चिल्लाता है, “अरे! इतनी ज़ोर का धक्का दिया रे!” और पहाड़ को दे लो जितनी ज़ोर का धक्का देना है, उसे कुछ पता नहीं चलता।
साधना के आरंभ में भी माया की ओर से विरोध आता है, साधना के मध्य में भी आएगा, और साधना के अंत में भी आएगा। आरंभ में छोटा विरोध आएगा, मध्य में बड़ा विरोध आएगा, अंत में और बड़ा आएगा। और जब भी आएगा, वो तुम्हें ‘बड़ा’ ही लगेगा। क्यों? क्योंकि जीवन का एक सूत्र अच्छे से समझिए और याद रखिए — आपको अपनी हैसियत से ज़्यादा बड़ी चुनौती मिलेगी ही नहीं। ‘हैसियत’ से मेरा तात्पर्य — रूपए, पैसे इत्यादि से नहीं है। समझ ही रहे होंगे। मैं ‘आंतरिक’ सामर्थ्य की बात कर रहा हूँ।
माया भी आपके आंतरिक सामर्थ्य को देखकर आप पर वार करती है। जो बिल्कुल ही निस्तेज लोग होते हैं, अशक्त और सामर्थ्यहीन, उनपर माया का वार भी छोटा-ही-छोटा होता है। माया कहती है, “इनपर ज़ोर का क्या वार करना? इनमें दम ही कितना है!” लेकिन उनको माया का वो छोटा-सा वार भी कैसा लगता है? बहुत बड़ा! क्योंकि उन बेचारों की…