अपनी भाषा, अपनी बात, अपनी जिंदगी — यही है अध्यात्म

दिनांक ५ अक्टूबर’ १९ की शाम, विश्रांति शिविर, मुंबई के प्रतिभागियों द्वारा आचार्य जी का हर्ष व उल्लास के साथ स्वागत किया गया। फूलों से सुसज्जित सत्संग भवन में आचार्य जी का स्वागत प्रतिभागियों ने गुरु वंदना का एक स्वर में जाप करके किया।

आगमन के उपरांत आचार्य जी का सत्संग, कुछ इस प्रकार प्रारंभ हुआ।

आचार्य प्रशांत: बाहर क्या हुआ अभी?

मैं कह रहा हूँ उसमें सौन्दर्य भी है और ख़तरा भी। सुन्दरता तो स्पष्ट ही है कि कोई आ रहा है जिसको आप सम्मान देते हैं, जिसकी बात से आपको लगता है कि कुछ आपको मूल्य मिल रहा है। तो आपने उसके स्वागत में कुछ बातें कहीं, कुछ बहुत ऊँची बातें कहीं, यहाँ तक ठीक है। पर उसमें एक ख़तरा भी निहित है, उसको समझना ज़रूरी है।

हम अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में संस्कृत तो बोलते नहीं, कि बोलते हैं? (सभी प्रतिभागियों से) बोलते हैं क्या? हम अपनी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में यूँ ही कहीं झुक नहीं जाते। झुक जाते हैं क्या? नमित हो जाते हैं क्या? नहीं हो जाते न? और मैं बार-बार कहता हूँ कि अध्यात्म सार्थक सिर्फ तब है जब हम रोज़ जैसा जीवन बिता रहे हैं, वो बदले। ठीक है न?

आपने बहुत ग्रंथ पढ़ लिए, बहुत साधना कर ली, बहुत ध्यान कर लिया, बहुत भजन कर लिया लेकिन फिर भी ज़िंदगी जैसी चल रही है, वैसी ही अगर चल रही है, ढर्रो में बंधी हुई और उसमें डर भी है, लालच भी है और तमाम तरह के उपद्रव हैं, तो क्या अध्यात्म सार्थक हुआ? नहीं हुआ न?

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org