अपनी ज़िंदगी की असलियत जाननी है?
प्रश्नकर्ता: आप कहते हैं कि जीवन में मुक्ति, आनंद और चैन आए उससे पहले बंधनों का, दुःख और बेचैनी का अनुभव अनिवार्य है, पर मेरे जीवन में तो कोई ख़ास दुःख या बेचैनी दिखती नहीं मुझे। तो मैं बेईमान हूँ क्या या सचमुच दुःख है ही नहीं?
आचार्य प्रशांत: समझते हैं। देखो बहुत बड़ी तादाद होती है ऐसे लोगों की जो अपनी ज़िंदगी से लगभग संतुष्ट होते हैं। ‘लगभग’ शब्द पर ग़ौर करना, उन्हें अपनी ज़िंदगी से शिकायतें तो रहती हैं। ऐसे कम ही लोग मिलेंगे जिन्हें ज़िंदगी से कोई शिकायत नहीं, कोई अप्रसन्नता नहीं लेकिन उनकी शिकायतें बड़ी मद्धम होती हैं, बड़ी गुनगुनी सी। उबलती, खौलती, दहकती, लपट देती शिकायतें नहीं होती उनके पास। तो वो खींझते रहते हैं, चिढ़ते रहते हैं पर उनकी खींझ, उनकी चिढ़ कभी भी क्रांति या विद्रोह नहीं बनती।
ये शब्द ही अलग-अलग आयामों के हैं, है न? कहाँ खींझ और चिढ़ जो हम ज़्यादातर लोगों में देखते हैं और कहाँ विद्रोह और क्रांति। तो इसलिए मैं कह रहा हूँ कि अधिकांश लोग अपनी ज़िंदगी से थोड़ा बहुत गिला-शिकवा रखते हुए भी लगभग संतुष्ट होते हैं। उनसे अगर कहा जाए कि, “भाई तुम बीच-बीच में असंतुष्टि दिखा देते हो, अपनी किस्मत को कोसने लग जाते हो, तुम अपनी ज़िंदगी वाकई बदलना चाहते हो क्या?” तो कहेंगे — “हाँ साहब, ये समस्या है, वो समस्या है, ऐसा ठीक नहीं चल रहा है, ये गड़बड़ है, परेशान रहता हूँ, ज़िंदगी बदलनी है।”
और ज़िंदगी को बदलने के लिए जो श्रम लगना है जैसे ही उसकी आप बात करेंगे या ज़िंदगी को बदलने में जो मूल्य, कीमत लगनी है जैसे ही उसकी बात करेंगे वैसे ही ये…