अपनी ज़िंदगी की असलियत जाननी है?

बहुत बड़ी तादात होती है ऐसे लोगों की जो अपनी ज़िंदगी से लगभग संतुष्ट होते हैं। उन्हें अपनी ज़िंदगी से शिकायतें तो रहती है, लेकिन उनकी शिकायतें मद्धम होती है, तो वो चिढ़ते रहते हैं और उनकी चिढ़ कभी भी क्रांति या विद्रोह नहीं बनती। अधिकांश लोग अपनी ज़िंदगी से थोड़ा बहुत गिला-शिकवा रखते हुए भी लगभग संतुष्ट होते हैं। वो बदलना तो चाहेंगे लेकिन ज़िंदगी को बदलने के लिए जो श्रम लगना है आप जैसे ही उसकी बात करेंगे वैसे ही वो अपने कदम पीछे खीच लेंगे क्योंकि इनकी पास बस गुनगुनी सी खीझ है, ऐसी ज्वाला नहीं जो इनकी शिकयतों को पूरी तरह खत्म कर दे।

एक तो तरीका ये है कि आपका जो निजी जीवन चल रहा है जिसको आप कह रहे हैं कि करीब-करीब ठीक चल रहा है, आपके उपर कोई आपदा टूट पड़े, और वो जो अनहोनी घटना होती है वो आपके जीवन को नई साफ़, ज़्यादा ईमानदार दृष्टि से देखने को मजबूर कर देती है, आपको विवश कर देती है कि आप वो प्रश्न पूछे जो आपने कभी पूछे नहीं थे, वो प्रश्न कभी उठते भी थे तो बेईमानी के चलते या आलस के चलते आपने उनको दबा दिया था।

दूसरा तरीका वाल्मीकि का है कि तुम्हारी चल रही है सुचारु ज़िन्दगी, आसान ज़िंदगी, तुम जानभूझ कर खुद ही उसमें कुछ व्यवधान पैदा करलो क्योंकि तुम वो मुद्दे छूना ही नहीं चाहते, तुम वो सवाल उठाना ही नहीं चाहते जहाँ तुमको पता है कि गंदगी छुपी है, सच्चाई छुपी है। देखो कि कौन-सी बाते हैं जो करने से सबसे ज़्यादा घबराते हो और देखो कि कौन-सी बातें है जो दिन-रात किए जाते हो, देखो कि किनके सामने नहीं पड़ते, देखो कि किन से मुहँ चुराते हो, देखो कि कौन से अल्फ़ाज़ तुम्हारी ज़ुबान पर कभी नहीं…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org