अपनी कमज़ोरी का स्वीकार, अध्यात्म की शुरुआत
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हम ऐसे ही तो होते हैं!
हम कहाँ मानते हैं कि हालत खराब है हमारी?
अध्यात्म की तो शुरुआत ही
उस दिन से होती है,
जिस दिन तुम चैतन्य रूप से
ये स्वीकार कर लो कि तुम्हारी हालत खस्ता है।
पर अगर मान लिया कि हालत खस्ता है हमारी,
तो यह भी मानना पड़ेगा कि जीवन भर जो श्रम का, समय का निवेश किया,
वह निवेश व्यर्थ गया
और यह बात दिल तोड़ देती है न?
चालीस साल ज़िन्दगी में लगाए थे,
अचानक पता चला कि वह ज़िन्दगी बर्बाद है!
तो यह बात हम मानना नहीं चाहते।
लेकिन तुम यह मानोगे नहीं तो
जैसे चालीस साल लगाए,
वैसे ही चालीस साल और भी लगाओगे।
अभी तो चालीस डूबे हैं, फिर अस्सी डुबोओगे।
तो तुम्हें तो अगर अपने आखिरी दिन भी एहसास हो जाए कि जीवन गलत बिताया,
आखिरी दिन भी तुम स्वीकार कर लो कि गलत बिताया,
क्या पता आखिरी दिन ही तुम तर जाओ।
जब तक जी रहे हो, एक साँस भी है, तो अवसर है।
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