अपना कर्मफल कृष्ण को अर्पित करने का व्यवहारिक अर्थ क्या है?
अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव।
मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन् सिद्धिमवाप्स्यसि।।
यदि तू मन को मुझमें अचल स्थापित करने में समर्थ नहीं है तो हे अर्जुन! अभ्यास योग के द्वारा मुझमें प्राप्त होने की इच्छा कर।
और अगर तू इस अभ्यास में भी असमर्थ है तो केवल मेरे लिए कर्म करने के ही परायण हो जा। इस प्रकार मेरे निमित्त कर्मों को करता हुआ भी मेरी प्राप्तिरूप सिद्धि को ही प्राप्त होगा।
—श्रीमदभगवदगीता, अध्याय १२, श्लोक ९-१०