अपना कर्मफल कृष्ण को अर्पित करने का व्यवहारिक अर्थ क्या है?

अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव।
मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन् सिद्धिमवाप्स्यसि।।

यदि तू मन को मुझमें अचल स्थापित करने में समर्थ नहीं है तो हे अर्जुन! अभ्यास योग के द्वारा मुझमें प्राप्त होने की इच्छा कर।

और अगर तू इस अभ्यास में भी असमर्थ है तो केवल मेरे लिए कर्म करने के ही परायण हो जा। इस प्रकार मेरे निमित्त कर्मों को करता हुआ भी मेरी प्राप्तिरूप सिद्धि को ही प्राप्त होगा।

—श्रीमदभगवदगीता, अध्याय १२, श्लोक ९-१०

प्रश्नकर्ता: चरणस्पर्श, आचार्य जी। श्रीकृष्ण कहते हैं, “अगर तू मन को मुझमें अचल स्थापित करने में समर्थ नहीं है तो मुझे अभ्यास से पाने की इच्छा कर। और अगर अभ्यास भी नहीं कर सकता तो केवल मेरे लिए कर्म करने के परायण हो जा।”

तो मन को अचल स्थापित करने का क्या तात्पर्य है? और उस स्थापना का तरीका क्या है? क्योंकि हम जब गुरु कबीर साहेब के संग होते हैं तो वे कहते हैं कि जो कुछ भी मन पर छाया हुआ है, वह सब माया का ही रूप है। हम क्या समझें कि कृष्ण क्या कह रहे हैं?

आचार्य प्रशांत: तीन बातें कह रहे हैं कृष्ण। पहली — मन को अचलता से मुझमें स्थापित ही कर दे। दूसरी बात कह रहे हैं कि यह नहीं कर सकता तो भाई, अभ्यास योग कर ले। अभ्यास योग का मतलब होता है जप, तप, कीर्तन, साधनाएँ, विधियाँ इत्यादि। उसके बाद कह रहे हैं कि इतना भी नहीं किया जाता तो फिर ज़िन्दगी में यह सब जो तू काम करता है, उनको ज़रा निष्कामभाव से करना सीख। अपने सब कामों के फल छोड़ता चल।

इसमें जो पहली बात बोली है, उसकी कोई विधि नहीं है। बाकी दो विधियाँ ही हैं। जो पहली बात बोली है, वह…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org