अनंत चेतना का महासागर

मुझमें ब्रह्माण्ड की काल्पनिक तरंगों को उठने या गिरने दो। मैं जो अनंत चेतना का महासागर हूँ, मुझमें कोई वृद्धि या कमी नहीं होती।
—योगवासिष्ठ सार

आचार्य प्रशांत: "अनंत चेतना का महासागर हूँ मैं।” ये जो 'अनंत चेतना' है, इसको थोड़ा समझना पड़ेगा। चेतना में अनंतता दो तरह की होती है: एक विस्तार की, एक गहराई की। विस्तार की जो अनंतता है, उसे कहते हैं मन की कल्पनाशीलता, ‘जहाँ न जावे रवि, वहाँ जावे कवि’—ये चेतना की अनंतता ही है। कवि ऐसी-ऐसी बातें सोच लाएँगे कि पूछो मत। और सोच का कोई अंत नहीं, तुम सोचे जाओ, सोचे जाओ।

मानसिक आकाश भी अनंत है, काल्पनिक आकाश भी अनंत है। जैसे बाहर का आकाश अनंत है न, भीतर भी है। बाहर की दुनिया अनंत है, ऐसे ही भीतर की दुनिया भी अनंत है। बाहर चीज़ें-ही-चीज़ें हैं, भीतर ख़याल-ही-ख़याल हैं—अनंतता दोनों तरफ है।

तो एक आयाम है अनंतता का विस्तार, कि मन फैले ही जा रहा है, फैले ही जा रहा है; पंख पसारे ही जा रहा है; कल्पना करे ही जा रहा है। और चेतना की अनंतता का दूसरा आयाम है: गहराई—ये है मन का अंतर्गमन। जब मन विस्तार पाता है तो संसार में पंख पसारता है—ये मन का बहिर्गमन है।

आप कल्पना जब भी करेंगे, संसार की करेंगे। उसकी ही तो करेंगे न जो कल्पित हो सकता है? आत्मा की तो करेंगे नहीं। अब आपसे कहा भी जाए कि ज़रा अंदर की कल्पना करिए, तो अंदर के नाम पर क्या कल्पना करेंगे, कि कोई अँधेरी सी जगह है लाल-लाल? अंदर की तुम क्या कल्पना करोगे, अंदर क्या है? कोई फूल-पताशे तो होंगे नहीं भीतर—खून होगा, हड्डी होगी, दिल होगा, वो धड़क रहा होगा रक्त में नहाया हुआ, नसें होंगी, इधर से उधर चीज़ें जा रही हैं, तमाम नलियाँ है, किसी में हवा आ रही है, किसी में कुछ—यही तो कल्पना करोगे? तो ये तो संसार है। ये…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org