अध्यात्म है दोनों से आज़ादी
--
अध्यात्म दो सिरों में से किसी एक सिरे पर तम्बू गाड़ लेने का नाम नहीं है। अध्यात्म द्वैत के किसी एक सिरे पर तम्बू गाड़ लेने का नाम नहीं है।
अध्यात्म न दाएँ से आसक्त हो जाने का नाम है, और न बाएँ से।
अध्यात्म न बंद मुट्ठी का नाम है, और न ही खुली मुट्ठी का नाम है।
अध्यात्म का अर्थ है — बंद मुट्ठी से आज़ादी और खुली मुट्ठी से भी आज़ादी।
न मुट्ठी का बंद होना आवश्यक है, न मुट्ठी का खुला रहना आवश्यक है।
आवश्यक मात्र आज़ादी है; बंद मुट्ठी से भी आज़ादी और खुली मुट्ठी से भी आज़ादी।
तो न तो बंद मुट्ठी रखना आवश्यक है, न खुला रहना आवश्यक है। आवश्यक मात्र आज़ादी है। इसी आज़ादी, इसी मुक्ति को ‘सम्यकता’ भी कहते हैं।
कोई होता है, तुम्हारे भीतर पर तुमसे ऊपर, तुम्हारा अपना पर तुमसे बहुत दूर का, जो बता देता है तुम्हें कि कब मुट्ठी खोलनी है और कब मुट्ठी बंद रखनी है। याद रखना — वो तुम्हारे भीतर है, पर तुमसे बहुत ऊपर का है। यही मत मान लेना कि मेरे भीतर है तो मेरे ही जैसा हो गया। भीतर है, वो तुम्हारे बहुत निकट है, पर फिर भी वो तुमसे बहुत दूर है, ऊँचा है।
और निकट है वो तुम्हारे, फिर भी है तुमसे बहुत ऊँचा; कहीं और का है। उसका अपमान मन कर लेना, नहीं तो वो बताना बंद कर देगा। नहीं जान पाओगे फिर कि कब मुट्ठी बंद रखनी है और कब खोलनी है।
यही दोष था बेचारी स्त्री का — उसकी मुट्ठी खुलती ही मुश्किल से थी। शिकायत क्या थी अनुयायी को? कि पत्नी कंजूस है, कृपण है।
तो क्या संत ने, गुरु ने, ऋषि ने ये समाधान दिया, कि — “सुन स्त्री तेरी मुट्ठी बंद थी, अब तू इसे खुली रख?” नहीं, उन्होंने ये समाधान नहीं दिया। उन्होंने कहा, “जैसे दोष है मुट्ठी का बंद होना, वैसे ही दोष है मुट्ठी का खुला होना।” बंद मुट्ठी भी दोष है और खुली मुट्ठी भी दोष है।
दोष वास्तव में कहाँ है? दोष उसमें है जो कहता है, “मुट्ठी बंद रखो, सतत मुट्ठी बंद रखो।” और दोष उसमें है जो कहता है, “सतत मुट्ठी खुली रखो।” कभी वो तुमसे कहता है, “खुली मुट्ठी आदर्श है,” कभी वो तुमसे कहता है, “बंद मुट्ठी आदर्श है।” वो तुम्हें एक ढर्रा देता है, एक रिवाज़ देता है। क्यों ? क्योंकि वो नहीं जानता कि कब बंद रखना सही है, और कब खोलना सही है। तो वो तुमको एक परम्परा दे देता है, एक रूढ़ि दे देता है। एक ढर्रा दे देता है ।
और ढर्रा ये भी हो सकता है कि — दान बड़ी बात है। और तुम लुटाए ही जा रहे हो। और ढर्रा ये भी हो सकता है कि — बचत बड़ी बात है। और तुम बचाए ही जा रहे हो। ये अंधेपन का, अज्ञान का लक्षण है। तुम समझ ही नहीं रहे हो…