अध्यात्म में ‘वीर्य बचाने’ की बात क्या है?
प्रश्नकर्ता: अध्यात्म में वीर्य बचाने को बहुत ज़्यादा महत्व दिया जाता है।
आचार्य प्रशांत: किस उपनिषद् में लिखा है, “वीर्य बचाओ”?
प्र: नहीं, मैंने पढ़ा था।
आचार्य: किस उपनिषद् में?
ये तो ऐसा लग रहा है जैसे कि पुराना नारा हो, “वीर्य बचाओ, वीर्य बढ़ाओ।” ये कौन से उपनिषद् में लिखा है, किस संत ने ये गाया है, बताओ मुझे?
राग दरबारी जो उपन्यास है उसमें ज़रूर एक वैद्य जी थे, जो सब अशिक्षित, अनपढ़ गाँव वालों को बोला करते थे, कि “वीर्य बचाना बहुत ज़रूरी है क्योंकि वीर्य की एक बूँद एक किलो खून से बनती है, और एक किलो खून दस किलो दाल, दस किलो चावल, और न जाने कितने और दस किलो से बनता है।” तो कहते थे, “देख लो, बूँद एक वीर्य की, और उसके लिए इतना अनाज लगता है। तो वीर्य की बूँद बचाओ, भारत कृषि-प्रधान देश है, अन्न का सम्मान करना सीखो।”
किसी उपनिषद् में तो नहीं लिखा। हाँ, भारत की दुर्दशा पर राग दरबारी में जो व्यंग्य किया गया है उसमें ज़रूर ये वर्णित है। और जहाँ कहीं भी वीर्य को लेकर के इतनी गंभीरता से बातें की जाएँगी, उसको तुम हास्य का ही एक प्रकरण मानना। वो बात हास्यास्पद ही है, उस पर अधिक-से-अधिक हँसा ही जा सकता है, लतीफा है।
अरे सत्य के साधक को तुम वीर्य के किस्से सुना रहे हो, ये क्या पागलपन है? जिसे परमात्मा से इश्क़ है उससे तुम कह रहे हो, “वीर्य बचाओ”। अजीब।