अध्यात्म में भाषा का क्या महत्व है?

भाषा बड़े चमत्कार कर सकती है। जो शब्द तुम बोलते हो, वो तुम बोलते ही भर नहीं हो, सुनते भी हो। अपना ही कहा तुम सुनते भी हो। जैसे जानवर होते हैं न, जुगाली करते हैं — जुगाली का क्या मतलब होता है? जुगाली जानते हो न क्या होता है? क्या होता है? गाय-भैंसों का जानते हैं क्या होता है? पहले (चारा) अंदर जाता है, फिर जो अंदर का होता है वही बाहर आता है, पुनः अंदर जाता है। हमारा भी वैसा ही है। जो अंदर होता है, वही शब्द रूप में बाहर आता है, और बाहर आता है तो पुनः अंदर जाता है। इसीलिए भाषा बड़ी अनोखी चीज़ है।

अपने शब्द बदल डालो, मन बदलेगा। अपने शब्दों में नयापन ले आ दो, सफाई ले आ दो, मन में भी नयापन और सफाई आएंगे। जिसकी भाषा बदलने लग जाती है, यकीन जानिए उसका मन बदलने लग जाता है। पुराने मनीषियों को ये बात समझ में आती थी, इसीलिए जब उन्हें शास्त्रों का अध्ययन करना होता था तो वो पहले शास्त्रों की भाषा सीखते थे। वो कहते थे, “मैं जैसा हूँ वैसा रहकर के नया शास्त्र जान ही नहीं पाउँगा, और मुझे बदलना है अगर, तो मेरी भाषा को बदलना होगा”। पहले भाषा आएगी। जब नई भाषा आएगी तब ही नया शास्त्र आ सकता है। अनुवाद बड़ी गड़बड़ बात है। अनुवाद का मतलब होता है — “भाषा मेरी पुरानी रहेगी। मैं जो भाषा जानता हूँ, भाषा मेरी वही रहेगी, शास्त्र नया रहेगा।” ऐसे में बात पूरी बनती नहीं।

तुम उसका विपरीत भी करके देख सकते हो। तुम अपनी भाषा को और मलिन कर दो, तुम देखो तुम्हारा धीरे-धीरे जीवन भी और मलिन होता चला जाएगा। इसीलिए अनर्गल, अनाप-शनाप बकने से बचना चाहिए; इसीलिए दुर्वचनों का प्रयोग करते समय सतर्क रहना चाहिए…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org