अध्यात्म के अभाव से होते अपराध

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी प्रणाम स्वीकार करें। हाल ही में कश्मीर में एक छोटी बच्ची को बड़ी बर्बरता से मार दिया गया। मैं जब भी इस तरह की किसी घटना के बारे में सुनती हूँ तो बुरी तरह से बेचैन हो जाती हूँ और अपने-आप को असहाय, बेबस पाती हूँ, अवसाद में चली जाती हूँ। क्या करूँ?

आचार्य प्रशांत: तीन-चार कोटियों के लोग होते हैं, इनको सबको समझना।

एक कोटि उनकी जो इस तरह के अपराधों को स्थूल रूप से अंजाम देते हैं, जिन्हें समाज भी और कानून भी अपराधी के रूप में जानता ही है, कि “ये पाँच लोग, आठ लोग, दस लोग थे जिन्होंने ये अपराध किया, ज़ुल्म किया।” ये पहली कोटि के लोग हुए, जो अपराध में सीधे-सीधे ही स्थूल रूप से संलग्न थे।

दूसरी कोटि के लोग वो होते हैं जो इन स्थूल अपराधों का स्थूल ही तल पर विरोध करते हैं। वो यात्राएँ निकालेंगे, वो जुलूस निकालेंगे, वो नारे लगाएँगे, वो शोर मचाएँगे, वो मोमबत्तियाँ जलाएँगे। उन्होंने विरोध तो किया, पर स्थूल तौर पर।

तीसरी कोटि के वो लोग होते हैं जो दिल-ही-दिल में बुरा मानते हैं — जैसा तुमने लिखा — अपने-आप को बेबस, बेचैन पाते हैं, अवसाद में चले जाते हैं, दुखी हो जाते है, अकेले में आँसू बहाते हैं। ये तीसरी कोटि हुई।

चौथी कोटि हुई उदासीन लोगों की। इन्हें कोई मतलब नहीं, कोई मरे, कोई जिए। “घर में लड्डू है? है, ठीक!” जब तक घर में लड्डू है, दुनिया में कौन मर रहा है, कौन जी रहा है, कौन फ़िकर करे?

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org