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अध्यात्म का मज़ा ये कि बेवकूफ़ी मन में उठती ही नहीं
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, कल भजन गा रहे थे, “अमृत फल लिये हाथ, रुचै नहीं रार को।” भजन तो स्पष्ट है पूरा। रार जिसको समझाया है वो रार वो है जो दो को बताती है अलग-अलग। और अभी जो हम बात कर रहे हैं वो एक तरीके की तुलना कर रहे हैं और एक दूसरा है। इसका सही प्रसंग कैसे समझें क्योंकि अगर रार वही जो दो को बताती है, अलग-अलग है और यहाँ भी ऐसा दिख रहा है कि दो है तभी तुलना भी है उसमें और वो दिख रहा है तो प्रसंग कैसे समझें।
आचार्य प्रशांत: पानी रखा है और ज़हर रखा है। अगर होश में हो, तो क्या कोई द्वन्द है? “रार” माने द्वन्द, ‘तकरार’ से आया है, द्वन्द। पानी रखा है और ज़हर रखा है, और तुम होश में हो, तो कोई द्वन्द है? कोई रार है? जो बेहोश है, उसी के लिए तो द्वन्द है, उसी के लिए रार है।
पानी और ज़हर होते हमेशा हैं, गंगाजल भी है, और शराब भी है। दोनों होते हमेशा हैं। पर जो होश में हैं उसको एक ही दिखता है, रार नहीं है। रार कौन? जिसे दोनों दिखें, और उसे समझ में ही न आए कि पानी पियूँ कि ज़हर पियूँ। ये पगला है, बेहोश है। ये ऐसी बातें कर रहा है कि मुझे ये भी ठीक लगता है और वो भी ठीक लगता है। अब इसके भीतर क्या है? गृहयुद्ध। ये रार है। जिसे साधु और शैतान, में भेद समझ न आये। जो कहे कि ये बात भी ठीक है, और वो बात भी ठीक है।
शैतान को भी एक ही बात ठीक लगती है, कौन सी? उधर वाली। साधु को भी एक ही बात ठीक लगती है, कौन सी? इधर वाली। रार कौन? जो कभी इधर का है, और कभी उधर का है। शैतान पूर्णतया उधर का है, संत पूर्णतया इधर का है। और कबीर रार किसको कह रहे…
