अतीत के ढ़र्रे तोड़ना कितना मुश्किल?
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, बीस साल से जिन ढर्रों पर चलता आ रहा था, आपने आकर बोल दिया कि वो ठीक नहीं हैं। तो अब मैं उन्हें ठीक करने की कोशिश करूँगा। दो-चार दिन चलूँगा, फिर पाँचवें दिन लगेगा सब ऐसे ही चल रहे हैं तो ठीक है रहने दो, मैं भी पुराने ढर्रों पर वापस आ जाता हूँ।
आचार्य प्रशांत: बड़ा मजबूरी भरा सवाल है। चलो समझते हैं इसे। क्या नाम है तुम्हारा?
प्र: यथार्थ।
आचार्य: यथार्थ का मतलब होता है ‘वास्तविकता’। अब यथार्थ ने कहा है कि बीस साल से एक ढर्रे पर चल रहा हूँ, अब किसी और ढर्रे पर कैसे चल पाऊँगा? पहली बात तो ढर्रा तोड़कर एक नया ढर्रा नहीं बनाना है। हम बिलकुल भी ये नहीं करने वाले हैं कि एक संस्कार से दूसरे संस्कार की ओर जाएँ, एक तरह की योजना से दूसरे तरह की योजना में जाएँ। हम कह रहे हैं कि बोध ढर्रारहित होता है।
दूसरी बात ये कि बहुत लम्बे समय का ढर्रा है। वो टूटेगा कैसे?
इस कमरे में ये लाइटें बंद हैं और बीस साल से बंद हैं। कितने साल से बंद हैं?
प्र: बीस साल से।
आचार्य: (लाइटें खोलते हुए) अब बताना कितना समय लगा जल जाने में?
अँधेरा बीस साल से हो या दो सेकंड से हो, लाइट जलती है तो, जल गई। बत्ती जल गई तो जल गई। हो सकता है बीस साल का अँधेरा हो, हो सकता है दो हज़ार साल का अँधेरा हो, तो क्या फ़र्क पड़ता है। जल गई तो जल गई।