अच्छा काम करने में डर की बाधा

आचार्य प्रशांत: मनीष ने कहा है कि जब भी कोई अच्छा काम करना चाहता हूँ, तो भीतर से एक डर उठता है जो उस काम को करने से रोकता है। सत्र में आने से पहले भी ऐसा ही होता है।

तो तुम आ गए ना सत्र में? बस, उस डर के साथ यही सलूक किया करो। उसका क्या काम है? रोकना। और तुम्हारा क्या काम है? आना। उसे अपना काम करने दो, तुम अपना काम करो। वो जो भीतर है ना, वो भीतर हो के भी ज़रा पराया है। उसको समझना। मनीष, जो ये भीतर है ना, जो कुछ करने को कहता है, कुछ करने को रोकता है, वो यूँ तो लगता है कि जैसे भीतर है पर वो वास्तव में पराया है। तुम दो हो, एक वो जो तुम अभी हो, और दुसरे वो जो तुम शताब्दियों से हो, सदियों से हो। नहीं समझे?

अभी तुम ध्यान हो।

जानने वालों ने कहा है कि यही सत्य है। इसके अलावा तुम्हारी कोई पहचान सच्ची नहीं। जब तुम ध्यान में हो, उस वक़्त तुम्हारी सारी पहचानें कहाँ जाती हैं? हाँ? पता नहीं कहाँ जाती हैं, कौन जाने कहाँ गयी? अच्छा, आप ध्यान से सुन रहे हैं — कहिये कि आप, आप, और आप (भिन्न श्रोताओं की ओर इंगित करते हुए)। तो दो जने पुरुष हैं और दो जने स्त्री हैं। एक जन ज़रा प्रौढ़ है एक ज़रा युवा हैं। एक किसी पृष्टभूमि से आते होंगे दूसरे किसी पृष्टभूमि से आते हैं। आर्थिक स्थिति, जातीयता, भाषा, खानपान, इत्यादि में भी खूब भेद होगा? वो सारी पहचाने कहाँ चली गयी थी पिछले आधे घंटे में? पिछले आधे घंटे में जब मुझे ध्यान से सुन रहे थे तो क्या इनके ध्यान, इनके ध्यान और इनके ध्यान में कोई अंतर था? क्या तुम कहोगे कि इनका ध्यान स्त्री का ध्यान था और इनका ध्यान पुरुष…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org