अगर स्वेच्छा से कर रहे तो रुक कर दिखाओ!

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आज हम अष्टावक्र जी को पढ़ रहे थे। प्रथम अध्याय पर अध्ययन करते समय हम दो शब्दों पर आकर रुक गए। एक था ‘लत’, और दूसरा ‘प्राथमिकता’। तो धीरे-धीरे जब चर्चा बढ़ती गयी, तो हमें समझ आया कि ये दोनों लगभग समानांतर ही हैं। जो ‘लत’ बन जाता है, उसको हम प्राथमिकता देने लगते हैं। चर्चा में आगे बढ़ते हुए ये प्रश्न उठा कि क्या सत्य की ओर बढ़ते हुए, हम जिन बातों को या विषयों को अपनाते हैं, क्या उनसे भी आसक्त होना या उनको वरीयता देना पड़ता है? क्या ये भी अच्छी आदतों की तरह अपनाना पड़ता है?

आचार्य प्रशांत: ‘लत’ ऐसी है कि — एक घोड़े पर बैठ गए हो और बेहद कमज़ोर आदमी हो। और घोड़ा है बलशाली और ज़िद्दी। और घोड़े को जहाँ तुम्हें ले जाना है, ले जा रहा है। कोई दूर से देखेगा अनाड़ी, तो कहेगा, “ये जनाब घोड़े पर बैठकर जा रहे हैं।” कोई दूर से देखेगा, अनाड़ी होगा, समझ नहीं रहा होगा, तो उसे लगेगा कि आप घोड़े पर बैठकर जा रहे हैं। हक़ीक़त क्या है? आप कहीं बैठ इत्यादि कर नहीं जा रहे, घोड़ा करीब-करीब आपको घसीटता हुआ, जहाँ चाहता है वहाँ ले जा रहा है।

ये ‘लत’ है।

‘लत’ में ‘आप’ हैं ही नहीं। आप कमज़ोर हैं।

‘लत’ माने — घोड़ा।

वो आपको जहाँ चाह रही है, ले जा रही है। आप कमज़ोर हैं। आपके कोई सामर्थ्य ही नहीं है कि आप घोड़े को रोक सकें, या उतर सकें, या घोड़े को दिशा दे सकें। ये ‘लत’ है — आदत।

आदत में ‘आदत’ प्रबल होती है, आप दुर्बल होते हो।

जब बात आती है वरीयता की — वहाँ पर एक मज़बूत नौजवान है, घुड़सवार है। और उसके सामने घोड़े भी खड़े हैं, हाथी भी खड़े हैं, ऊँट भी खड़ा है। रथ भी खड़े हैं, गाड़ियाँ खड़ी हैं। वो चुन रहा है उसे किसपर सवार होना है। वो चुनेगा उसे किस दिशा जाना है, कितनी दूर जाना है। और वो चुनेगा कि उसे कब उतर जाना है।

‘वरीयता’ में वरण करने वाला, सबल होता है। उसको चढ़ने का भी अधिकार होता है, और उतरने का भी अधिकार होता है।

लत में न तुम्हें चढ़ने का अधिकार था, न उतरने का अधिकार है, न तुम्हें उस घोड़े को लगाम देने का कोई अधिकार है। वो स्वच्छंद-उन्मुक्त घोड़ा है, वो अपनी मर्ज़ी का घोड़ा है। न तुम्हें उस घोड़े को लगाम देने का कोई अधिकार होता है। ‘वरीयता’ में ‘तुम’ होते हो चुनाव करने के लिए, वरण करने के लिए। ‘लत’ में ‘तुम’ होते ही नहीं।

लेकिन हाँ, हमारे झूठ और फ़रेब की कोई सीमा तो है नहीं। तो अब ये हमारे झींगा पहलवान हैं, जिन्हें घोड़ा लादे सरपट चला जा रहा है। इनसे कोई पूछता है रास्ते में, “उस्ताद, कहाँ को?” तो बोलते हैं, “अभी बता नहीं सकते। अभी बहुत जल्दी में हैं। देख नहीं रहे हो, घोड़ा हम कितनी तेज़ी-से दौड़ा रहे हैं?” और फिर घोड़े को एक हाथ मारकर कह रहे हैं, “चल, और तेज़ चल!”

हमें ये प्रदर्शित करते बड़ा सुख मिलता है कि हम लत के ग़ुलाम नहीं हैं, हम ‘लत’ का चयन कर रहे हैं।

देखते नहीं हो हम कितने कर्ताभाव के साथ बोलते हैं, “मैं, दफ़्तर जा रहा हूँ।” तुम जा रहे हो, या मजबूरी है जाना? “मैं दफ़्तर जा रहा हूँ”, वास्तव में ये कहने का अधिकार तुम्हारे पास सिर्फ़ तब ही है जब किसी भी पल दफ़्तर न जाने का विकल्प तुम्हें उपलब्ध हो। जिसमें ये हिम्मत हो कि किसी भी पल कह देगा, “अब नहीं जाना”, सिर्फ़ उसे ही ये कहने का हक़ है कि — “जा रहा हूँ।”

जो मजबूरन जा रहे हैं, उन्हें ये कहने का हक़ ही नहीं है कि वो दफ़्तर जा रहे हैं। जैसे कि हमारे घुड़सवार झींगा पहलवान को ये कहने का हक़ है क्या कि — “मैं घुड़सवार हूँ”? तुम घुड़सवार थोड़े ही हो। वैसे ही तुम दफ़्तर ‘जा’ थोड़े ही रहे हो।

अधिकांशतः हम जो करते हैं, उसको न करने का विकल्प भी होता है क्या हमारे पास? बोलो। रुपया दिखा, उसकी ओर दौड़ लिए। कोई स्त्री दिखी, उसकी ओर दौड़ लिए। न दौड़ने का विकल्प भी था क्या? ये न कहना कि सैद्धांतिक, किताबी तौर पर था। वास्तव में विकल्प था क्या? अगर वास्तव में था, तो ज़रा कभी रुककर भी दिखा दो। कि तुम्हें आकर्षित कर रहा है पैसा, तुम्हें आकर्षित कर रहा है काम, और तुम रुककर दिखा दो।

जो रुककर दिखा दें, उन्हें ये कहने का हक़ है कि — “मैं ऐसा कर रहा हूँ।” बाकी ये न कहें, “मैं ऐसा कर रहा हूँ।” बाकी ऐसा कहें, “मुझसे ऐसा करवाया जा रहा है।” कौन करवा रहा है? प्रकृति करवा रही है, देह करवा रही है, अतीत करवा रहा है, संस्कार करवा रहे हैं।

“मैं ‘कर’ नहीं रहा हूँ, मैं ग़ुलाम हूँ जिससे ‘करवाया’ जा रहा है। और मैं झूठ बोलता हूँ, जब मैं बार-बार बोलता हूँ कि — ‘मैं कर रहा हूँ’।” अब जैसे जम्हाई; आप जम्हाई कर थोड़े ही रहे हो। हिम्मत है तो रोककर दिखा दो।

जो रोक सकता हो, उसे ही ये कहने का हक़ है कि, “मैंने किया”।

समझ में आ रही है बात?

जो काम करना तुम्हारी विवशता हो, तुम उस काम के कर्ता कैसे हो गए? विवशता में करे काम का भी तुमने कर्तृत्व श्रेय ले लिया। वहाँ भी तुमने कह दिया, “मैं कर्ता हूँ।” काम तो हो रहा है मजबूरी में।

अंतर समझ में आया?

अकसर हम स्वयं ही भूल जाते हैं अंतर कि — कुछ करना हमारा चुनाव है, या हमारी विवशता। जब ये अंतर भूलने लगो, जब ये अंतर धुँधला होने लगे, तो ये छोटा-सा प्रयोग करके देख लेना — जो कर रहे हो, उसको रोककर दिखा दो। जो कर रहे हो, उसको न करके दिखा दो।

अगर न करने की सामर्थ्य बची है तुममें अभी, तो तुम्हें ये हक़ है कहने का, “मैं कर्ता हूँ।” अगर पाओ कि ‘ना’ कहने का विकल्प तो कबका बंद हो चुका है, तो बस ये कह दो, “मैं मजबूर हूँ, और ग़ुलाम हूँ।” फिर ये मत कहना कि — “मैं कर्ता हूँ।”

बीच-बीच में जाँचते रहा करो। गाड़ी का ब्रेक आज़माते रहा करो। गाड़ी रुके तुम्हारे ब्रेक मारने से, तो कहना, “ड्राइविंग कर रहा हूँ।” तुम ब्रेक लगा रहे हो और गाड़ी रुक नहीं रही, और फिर भी कहो, “मैं ड्राइवर हूँ”, तो तुम ख़ुद को ही बुद्धु बना रहे हो। अब तुम ड्राइवर नहीं हो, अब तुम फँसे हो। अब तो कूदो। ये गाड़ी तुम्हारे चलाए नहीं चल रही है, ये बस चल रही है। तुम सीट और सीटबेल्ट के बीच में फँसे हुए हो। कूदो!

प्र: आचार्य जी, आपने अभी बोला कि कोई हमसे करवा रहा है। कई बार हम इसी तर्क के पीछे छुपने की कोशिश करते हैं कि — “ये मैंने नहीं किया। कोई मुझसे करवा रहा है।” क्या ये ज़िम्मेदारी से भागना नहीं है?

आचार्य:

नहीं, अगर कोई ये कह रहा है कि — “मैंने ये नहीं किया, कोई मुझसे करवा रहा है” — तो वो ठीक ही बोल रहा है। लेकिन वो कर्मफल का श्रेय भी ना माँगे। क्योंकि जो ये साफ़-साफ़ कह दे कि — “मैं कर्ता नहीं हूँ”, अब वो भोक्ता भी नहीं हो सकता।

ये नहीं चलेगा कि कहीं कह दिया, “ये मैंने किया नहीं है”, जहाँ फल कड़वा आया, वहाँ कह दिया, “ये काम तो मैंने किया ही नहीं था।” ऐसा तो तुम वहीं कहोगे न, जहाँ फल कड़वा आया है। कर्म का फल कड़वा आया, तो तुम तत्काल क्या बहाना बनाओगे? “ये मैंने किया नहीं है। ये तो हो गया। पता नहीं कैसे हो गया। ये मैंने करा नहीं है।” और ये तुम क्यों कह रहे हो? क्योंकि काम का फल कड़वा आया है।

चलो ठीक है। तुम्हारी बात मान ली। अब जब काम का फल मीठा भी आएगा, तो उस मीठे फल पर भी दावा मत करना। क्योंकि तुमने तो किया ही नहीं। तुम ही ने तो कहा था न थोड़ी देर पहले, “मैंने तो किया नहीं। मुझसे तो हो गया।” तो बस, अब जब मीठा फल आएगा, उस मीठे फल पर भी दावा मत रखना।

“मैं कर्ता नहीं हूँ”, ये बात सुविधा-अनुसार उपयोग नहीं की जा सकती। जैसे स्वादानुसार दाल में नमक मिला लिया। उसी तरीके से जब सुविधा लगी, तो कह दिया, “मैं तो हूँ ही नहीं। ये तो प्रकृति है जो मुझसे करा गयी।” और जब देखा कि कर्म का श्रेय मिल रहा है, तो तुरंत कूदकर खड़े हो गए, “ये हमने किया है। बताओ क्या ईनाम मिलेगा?”

अगर ‘कर्ता’ नहीं हो, तो सदा नहीं हो। अगर ‘कर्ता’ हो, तो सदा हो। फिर कड़वा फल आए, या मीठा फल आए, दोनों भुगतने के लिए तैयार रहो। घपला नहीं चलेगा — कभी ‘हाँ’, कभी ‘न’।

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org