अगर कठपुतली हैं हम सभी, तो डोर किसके हाथ है?

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, यदि जब सत्य पूर्ण है तो उसी स्रोत से जब चेतना आती है तो वो अपूर्ण क्यों है?

आचार्य प्रशांत: चेतना अपूर्ण होती नहीं है। चेतना के पास चुनाव होता है पूर्ण या अपूर्ण होने का। वास्तव में सत्य और चेतना अलग-अलग नहीं है। सत्य ही जब अपूर्ण होने के अपने विकल्प का चुनाव कर लेता है तो वो साधारण चेतना कहलाता है। सत्य तो अद्वैत है, तो माने सत्य के अलावा तो कुछ हो नहीं सकता न।

सत्य पाँच-सात होते हैं क्या? अभी बात करी थी सत्य तो एक है तो सत्य और चेतना दो कैसे हो सकते हैं, जब सत्य के अलावा किसी दूसरी इकाई का अस्तित्व ही नहीं हो सकता। तो ‘सत्य और चेतना हैं’, ये वाक्य ही ग़लत हो गया न। जहाँ तुमने कहा ‘सत्य और’ तहाँ बात गड़बड़ हो गई। सत्य क्या कहलाता है? असंग, निसंग। जिसके साथ कभी किसी को जोड़ मत देना, जिसके बगल में कभी किसी को बैठा मत देना, ‘सत्य और असत्य’ ऐसा भी कभी मत कह देना। सत्य मात्र है। तो चेतना भी क्या है? चेतना सत्य ही है, वो अपूर्ण नहीं है। सत्य ही जब इस विकल्प का उपयोग कर लेता है कि वो सीमित भी हो सकता है तो वो सीमित सांसारिक चेतना बन जाता है। सत्य को कौन भ्रम में डालेगा, सत्य ही स्वयं को भ्रम में डाल सकता है।

हम सत्य ही हैं, जिसने स्वयं को मूर्ख बना रखा है। ये बात बढ़िया है, कभी-कभार खिलवाड़ में करो तो कोई बात नहीं। ख़ुद को ही बुद्धू बना लिया, शुरुआत ऐसे ही हुई थी। सत्य ने ख़ुद से कहा कि दूसरा तो है नहीं तो किसके साथ खेलना है सत्य को? ख़ुद के साथ। तो ख़ुद से कहा, “चलो आज खेलते हैं। क्या करना हैं? ख़ुद को…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org