अकेले रहना बेहतर है, या दूसरों के साथ?
दोनों में कुछ पता चलता है।
जब किसी के साथ हो, तो तुम्हें पता चलता है कि तुम्हारे मन की क्या दशा होती है। जब कोई सामने आता है, परख हो जाती है न। नहीं तो तुम अपने बारे में कल्पनाएँ ही करते रहते हो। पर जब कोई सामने आता है तो हाथ कंगन को आरसी क्या? सारे भेद खुल जाते हैं।
तुमने अपने बारे में बड़ी कल्पना रख सकते हो कि मुझ जैसा शूरवीर कोई दूसरा नहीं है। मान रहे हो बिलकुल कि — हम ही हैं हिम्मत वाले। और निकले, सामने सांड पड़ गया एक सड़क पर, तो हो गया न दूध-का-दूध? एक रिश्ता बना न तुम्हारा? किससे? सामने जो सांड है। इस रिश्ते में तुम्हें सांड के बारे में कम, और अपने बारे में ज़्यादा पता चला। वो सामने न पड़ा होता तो तुम अपनी कल्पनाओं में ही खोए रहते, तुम्हें अपने मन के तथ्य के बारे में कभी पता नहीं चलता।
और तथ्य ये है कि — तुम डरपोक हो।
अपने आप को आप कमरे में बंद कर लें, एकांत की बात करके, तो उसका एक दुष्प्रभाव ये होता है कि — आपकी स्वरचित, स्वकल्पित मान्यताओं को चुनौती देने वाला कोई यथार्थ नहीं होता।
लालच की कोई वस्तु अपने सामने लाओ ही नहीं, तुम्हारे लिए बड़ा आसान हो जाएगा ये दावा करना कि मैंने तो लालच को जीत लिया है। जबकि बात ये है कि तुमने लालच वाली वस्तुओं से अपने आपको दूर कर लिया है। वो चीज़ें दोबारा से सामने आएँगी, तुम दोबारा फिसलोगे।
तो इसीलिए समझाने वाले कहते हैं कि — तुम वास्तव में क्या हो, तुम्हारे मन की हालत वास्तव में क्या है, ये तो तुम्हें दुनिया के सामने…