अकेले चलने में डरता क्यों हूँ?
मैं एक चित्र देख रहा था जिसमें एक बड़ा हाथी एक पतली-सी रस्सी से, पतली-सी टहनी से बँधा हुआ दिखाया गया था। मैं उसको देर तक देखता रहा, फिर मैंने कहा, “ये हम ही तो हैं!” जानते हो होता क्या है? जब ये हाथी बच्चा था तब उसको उस रस्सी से, उस टहनी से बाँधा गया था। तब वो नहीं भाग पाया। तब उसने कोशिश करी थी एक दिन, दो दिन, दो हफ्ते, चार हफ्ते, तब उसको ये भ्रम हो गया कि शायद यही जीवन है, शायद ऐसे ही जीया जाता है, शायद इससे कोई छुटकारा ही नहीं है। और आज वो हाथी पूरा बड़ा हो गया है। इतनी-सी उसे कोशिश करनी है और वो मुक्त हो सकता है। पर वो कभी मुक्त नहीं हो पाएगा क्योंकि उसका मन अब ग़ुलाम हो गया है। अब उसके लिए मुक्ति सम्भव ही नहीं है क्योंकि मन हो गया है ग़ुलाम।
वही हाल हमारा हो गया है। तुम्हें तुम्हारी टाँगे दी गई हैं, तुम्हारी दृष्टि दी गई है, तुम्हें तुम्हारी समझ दी गई है, और इन सबमें तुम किसी पर आश्रित नहीं हो। और अच्छी-खासी अब तुम्हारी उम्र हो गई है, प्रकृति भी चाहती है कि तुम मुक्त जियो, पर आदत कुछ ऐसी बन गई है अतीत से कि अकेले चलते हुए ही डर लगता है। समझ रहे हो न बात को?
पर भूलना नहीं कि उसमें कुछ सत्य नहीं है, बस आदत है। आदत स्वभाव नहीं होती। स्वभाव होता है अपना और आदत आती है बाहर से। तुमने किसी बाहरी बात को पकड़ कर के उसको अपना समझ लिया है। तुम ‘आदत’ और ‘स्वभाव’ में भूल कर रहे हो, उनको अलग-अलग नहीं देख पा रहे। तुम्हारा स्वभाव है — तुम्हारा कैवल्य, तुम्हारा एकांत, तुम्हारा अपने आप में पूरा होना। तुम्हें किसी निर्भरता की आवश्यकता है नहीं।