अकेलापन क्यों महसूस होता है?

जब हम अकेलेपन की बात कर रहे हैं तो किसकी बात कर रहे हैं?

शरीर?

शरीर कैसे अकेला हो जाएगा? तुम्हें दिखाई पड़ रहा है कितने करोड़ जीवाणु अभी शरीर पर चिपके हुए हैं? चलो! शरीर से तुम धो भी दो, तुम्हें पता है तुम्हारी आंतों में कितने करोड़ जीवाणु निवास करते हैं? तुम पूरा एक शहर हो, एक देश हो। तुम्हारे भीतर करोड़ों की जनसंख्या बैठी हुई है, तुम अकेले कहाँ से हो गए? शरीर कैसे अकेला हो जाएगा? तुम्हारे भीतर एक घनी जनसंख्या बैठी हुई है। शरीर नहीं अकेला होता। शरीर न अकेला होता है, न दुकेला होता है। जब अकेलेपन की बात की जाती है तो वहाँ पर शरीर के आयाम की बात की ही नहीं जा रही। मन अगर भीड़ से घिरा हुआ है तो ‘मन’ अकेला नहीं है। मन पर अगर हावी है कुछ भी, तो ‘मन’ अकेला नहीं है।

मन में जितनी बातें उथल-पुथल मचा रही हैं, तुम उतने घिरे हुए हो, बात इतनी सीधी-सादी है।

जो लोग कहते हैं — ‘साहब! हमें अकेले रहना पसंद है’, वो अक्सर सबसे ज़्यादा भीड़ में जी रहे होते हैं क्योंकि उनके पास एक पूरी भीड़ होती है (दिमाग़ में) और वो उससे इतने घिरे होते हैं क्योंकि उससे बाहर निकलने का मौका ही नहीं है। पहले ही भीड़ में हो तो और लोगों को वह अपने जीवन में प्रवेश ही नहीं दे पाते। अब कमरे में बैठे हुए हैं और उनके साथ अट्ठारह लोग हैं कहाँ पर? यहाँ पर (दिमाग़ में) तो कमरे के बाहर जो लोग हैं, वह उनसे मिलेंगे ही नहीं। फिर वो क्या कहेंगे? मुझे अकेले रहना पसंद है। अरे! तुम्हें अकेले रहना पसंद नहीं है। तुम भीड़ से इतना घिरे हुए हो कि अब तुम किसी से मिल ही नहीं पा रहे। तुम्हारे पास जगह ही नहीं है।

ज़्यादातर यह जो अकेलेवाद के अनुयाई होते हैं, वह यही होते हैं।

पूरा वीडियो यहाँ देखें।

आचार्य प्रशांत के विषय में जानने, और संस्था से लाभान्वित होने हेतु आपका स्वागत है

--

--

आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org